केवल शिक्षा नीति ही आज के संदर्भ में पर्याप्त नहीं है बल्कि सभी शिक्षण संस्थानों के लिए विधि निर्मित करते हुए वर्तमान देश, संस्कृति विरोधी परिस्थितियों को देखते हुए प्रशासनिक नियंत्रण की आवश्यकता भी है।
कोरोना महामारी से जीवन ही प्रभावित नहीं हुआ है बल्कि देश की अर्थव्यवस्था के साथ एक अन्य मुख्य क्षेत्र शिक्षा पर भी अत्यधिक प्रभाव पड़ा। शिक्षा चाहे प्राथमिक स्तर पर या उच्च स्तर पर हो हर स्तर पर इस महामारी का प्रभाव व्यापक रूप से पड़ा है। बच्चों के स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय तक बन्द हैं। ऐसे में अगर बच्चों के प्राथमिक स्कूल खोले जाएं तो उसके लिए क्या व्यवस्थाएं होंगी और क्या ऐसा किया जाना छोटे बच्चों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ नहीं होगा जो इस देश का भविष्य हैं। विश्वविद्यालय स्तर पर भी पठन-पाठन कार्यक्रम थम गया है। नौजवान पीढ़ी अपने भविष्य को लेकर बड़ी संशकित है। प्राथमिक विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक इस समस्या का समाधान कि किस प्रकार दोबारा पाठ्यक्रम शुरू किया जाए कोई उपाय किसी को सूझ नहीं रहा है। वर्तमान परिदृश्य एक अलग प्रकार की चुनौती से शिक्षा जगत जूझ रहा है।
देश की मूल शिक्षा नीति अंग्रेजों के समय ‘कलकत्ता मदरसा‘ से शुरू हुई, इसके पश्चात गवर्नर जनरल लार्ड विलियम बैंटिक व विलियम एडम जिन्होंने शिक्षा नीति बनाई थी व उसके पश्चात लार्ड मैकाले व ग्रामीण शिक्षा के लिए जेम्स थाॅमसन से होते हुए भारतीय विश्वविद्यालय आयोग 1904, सैडलर विश्वविद्यालय आयोग, हर्टाग समिति, शिक्षा पर सार्जेण्ट योजना पर आकर रूकी और 1945 में तमाम परिवर्तन होते हुए परिवर्तित योजना का नाम ‘नई तालीम‘ रखा गया, इसके चार भाग थे पूर्व बुनियादी, बुनियादी, उच्च बुनियादी और वयस्क शिक्षा, जिसका भार ‘हिन्दूस्तानी तालीमी संघ‘ (भारतीय शैक्षिक संघ) पर छोड़ दिया गया।
ब्रिटिश काल में लार्ड मैकाले की शिक्षा के साथ ईसाई मिशनरियों का शिक्षा जगत में प्रवेश हुआ। इस काल में शिक्षा का उद्देश्य अंग्रेजों के राज्य की शासन प्रणाली व हितों को देखकर शिक्षा नीतियों को बनाया जाता था। अंग्रेजों द्वारा बनायी गई शिक्षा नीति से संस्कृत, हिन्दी और लोक भाषाओं के वर्चस्व को समाप्त कर अंग्रेजी व अंग्रेजी शासन प्रणाली का वर्चस्व स्थापित किया गया। इन लक्ष्यों को प्राप्त करने में ईसाई मिशनरियों ने बहुत ही महती भूमिका निभाई और मैकाले की शिक्षा नीति सम्पूर्ण देश में लागू कर दी। उक्त शिक्षा नीति को लागू करने के लिए ईसाई मिशनरियों ने देश के बड़े शहरों के साथ-साथ छोटे शहरों में भी अपने शिक्षा संस्थान खोल दिए और भारतीय बच्चों के मानस पटल पर देश की संस्कृतियों को धीर-धीरे मिटाते हुए अंग्रेजी संस्कृति का बीज बोना शुरू कर दिया और हम मूढ़ अपनी संस्कृति को भूलकर अंग्रेजी संस्कृति पर इतराते रहे।
1976 में किए गए 42वें संविधान संशोधन द्वारा शिक्षा को राज्य सूची से हटाकर समवर्ती सूची में कर दिया गया। समवर्ती सूची में शामिल विषयों को केन्द्र और राज्य सरकार दोनों मिलकर शिक्षा प्रोत्साहन के लिए नीति बनाने, शिक्षा के आधारभूत ढांचे में सुधार हेतु व शिक्षा की चुनौतियों से निपटने के लिए उक्त संविधान संशोधन किया गया था एवं देश में शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू हुआ, जिसमें 6 से 14 वर्ष के लिए शिक्षा को मौलिक अधिकार बना दिया गया।
इसके भी वांछित परिणाम देश की जनता को नहीं मिल सके। जिस प्रकार प्राथमिक व माध्यमिक व उच्च शिक्षा का सशक्तिकरण किया जाना था उक्त सशक्तिकरण नहीं हो सका बल्कि देश में ईसाई मिशनरियों द्वारा संचालित प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षा का दिनोदिन उत्तरोतर सशक्तिकरण होता रहा और भारतीय कुलीन वर्ग ने ईसाई मिशनरी स्कूल में बच्चों को पढ़ाकर समाज में प्रतिष्ठा का विषय बना दिया जो ईसाई मिशनरियों को मुख्य उद्देश्य था, जिसमें वे सफल हो गये और मिशनरी स्कूल में पढ़ना प्रगति का द्योतक हो गया और हिन्दी माध्यम स्कूल इनके सामने तुच्छ श्रेणी के स्कूल हो गये और सरकारी स्कूल केवल कमजोर वर्ग के लिए ही आरक्षित रह गये। भारत के सामान्य वर्ग ने सरकारी स्कूलों से अपना मुंह मोड़ लिया जिसके कारण ईसाई मिशनरी स्कूलों का और भी बोलबाला हो गया। इन ईसाई मिशनरी स्कूलों ने बच्चों को भारतीय संस्कृति से दूर कर ईसाई विचारधारा का बीज बोया और उक्त ईसाई मिशनरी समानान्तर शिक्षा व्यवस्था चलाते रहे। इन ईसाई मिशनरी स्कूलों पर किसी प्रकार का प्रशासनिक नियंत्रण भी शासन प्रशासन का नहीं रहा, जिसका कोई कारण कभी स्पष्ट नहीं हो सका।
वर्तमान शिक्षा नीति भी करीब तीस वर्ष पुरानी हो गयी है। इसमें भी बदलाव अपेक्षित था जिस पर सरकार द्वारा पहल की जा चुकी थी। इसी के उपरान्त कोरोना महामारी आ गई और अब नई शिक्षा नीति इस महामारी को ध्यान में रखते हुए बनाया जाना आवश्यक है। भविष्य में बच्चों व नौजवान पीढ़ी को उनके स्वास्थ्य का ध्यान रखते हुए किस प्रकार पढ़ाया जाना संभव होगा। इस पर विस्तृत रूप से विचार-विमर्श कर नीति बनाया जाना आवश्यक है साथ ही प्राथमिक स्तर व माध्यमिक स्तर से लेकर उच्च शिक्षा तक एक सम्पूर्ण नये ढांचे को भारतीय संस्कृति के अनुरूप स्थापित किए जाने की आवश्यकता है। शिक्षा की गुणवत्ता भी एक बहुत बड़ी चुनौती है, गुणवत्ता को भी पूर्ण रूप से बनाये रखने की आवश्यकता है एवं शिक्षा जगत एक सुसंगठित समूह(माफिया) के चंगुल फंस चुका है, उस समूह से भी निजात पाना है। नई परिस्थितियों में प्राथमिक स्तर पर छोटे बच्चों को घर पर ही रहकर वह पढ़ सकें, ऐसे प्रयास किये जाने की आवश्यकता है व माध्यमिक स्तर पर अधिक से अधिक कम्प्यूटर व इंटरनेट के माध्यम से शिक्षित किए जाने की आवश्यकता है एवं केवल शिक्षा नीति ही आज के संदर्भ में पर्याप्त नहीं है बल्कि सभी शिक्षण संस्थानों के लिए विधि निर्मित करते हुए वर्तमान देश, संस्कृति विरोधी परिस्थितियों को देखते हुए प्रशासनिक नियंत्रण की भी आवश्यकता है।
जय भारत,
जय हिन्द,
वर्तमान समय में भारत बर्ष की शिक्षा नीति के नवीन कारण केलिय लिए जो आपने सुझाव दिया है भारत सरकार को ध्यान दे ने की
आवश्यकता है अति सुन्दर भावपूर्ण सच्चाई भरी लेखनी केलिय धन्यवाद् भाईया प्रणाम करता हूँ आपको
स्वगतयोग्य सुझाव । वर्तमान परिस्थितियों में आपके द्वारा दिये गए सुझाव को दृष्टिगत रखते हुए निश्चितरूप से शिक्षा नीति का निर्माण करना होगा तभी हम आज की विषम परिस्थितियों पर विजय प्राप्त कर सकेंगे
बहुत अच्छा …. सर जी ……
इस देश का दुर्भाग्य है कि न हमारी हिन्दू संस्कृति हैं, न हमारी भाषा,
शुद्ध रूप से एक ऐसा षडंत्र रचा गया कि हम अपने गौरव अतीत को ही भूल गये या भुला दिया गया।
शिक्षा लूट खसोट का मंदिर हो,गया हैं। बोर्ड,icsc, cbsc सब अपने राग अलाप रहे हैं।
माप दंड का वर्गीकरण कर दिया गया हैं। इनकी जड़ें बरगद का रूप ले चुकी हैं।
इनको सही रास्ते पर लाने के लिये, एक प्लेटफार्म का होना जरुरी हैं।
*अपनी भाषा मे शिक्षा ग्रहण करने मे आसानी होती हैं।
*सिलेबस पूरे भारत वर्ष में एक होना चाहिये।
*आरक्षण जाति में नही, बल्कि अपनी प्रांतीय भाषा मे सफल हुआ प्रतियोगी ,उसको उसी प्रांत में वरीयता, आरक्षण दिया जाये।
*शिक्षा सस्ती की जाये।